हर पल चिट्ठी लिखती हूं तुम्हें मन ही मन, …
पर तुम तक अब पहुंच नहीं पाती …
पते की जगह दिल लिख देती हूं अपना फिर जवाब की राह तकती हूं…
तुमने कभी दस्तक दी थी मेरे दरवाजे पर…
अजनबी होकर भी जाने क्यों हाल पूछ लिया था तुम्हारा ..m
क्या पता था दर्द की रेखाएं खींच रही हूं अपने चारों ओर …
पहले तुम नहीं थे तो जिंदादिली थी.. अब तुम नहीं हो तो जीने की जिद ही नहीं ..
शब्द दर शब्द तुम अंदर आते गए..
मैं कैद होती गई तुम्हारे लिए वह शब्द ही रहे ..
अच्छे वक्त की महफिल में क्यों भूल जाते उस सहारे को ..
जिस का सहारा ले तूफान से किनारा किया था कभी ..
अच्छा अब मत देना जवाब इन चिट्ठियों का ..
शब्दों की कैंची से विश्वास का उधडना जख्म गहरा करता है…
~Anu Agrawal
Jaipur, India