शिकायतें कभी वक्त से,
कभी खुद से,
कभी ज़माने से,
हमेशा रहतीं है।
जब छोटे थे तो शिकायतों का दौर नहीं था,
खेलना – कूदना, खाना – पीना,
ज़िन्दगी में कुछ और नहीं था,
होम – वर्क तो ढेर मिलता था,
पर मानो या ना मानो,
फिर भी पढ़ाई का ज़ोर नहीं था।
अब जो बड़े हुए तो आलम कुछ और है,
जब जहाँ देखो बस शिकायतों का शोर है।
शिकायत है जिंदगी से
कि अब से कुछ जुदा क्यूँ नहीं होती?
कब तक कठपुतली रहेगी,
कभी खुद खुदा क्यूँ नहीं होती?
शिकायत है वक्त से
कमबख्त कुछ मज़ेदार क्यूँ नहीं दिखाता?
तकलीफें शायद ज्यादा नहीं हैं,
फिर भी जीनें में मज़ा ही नहीं आता!
शिकायत है ज़माने से,
कि लोगों से पहले खुद को क्यूँ नहीं परखता?
अपनी नुकीली नज़रें
अपनी चार – दीवारी के अंदर क्यूँ नहीं रखता?
एक दिन लिखते – लिखते सोचा,
शिकायतें तो खुद से भी है,
वो भी ढेरों शिकायतें।
पर जब बात खुद पर आई,
तो शिकायतें हवा हो गई,
अभी तक सिर दर्द थी,
अब दवा हो गई।
बहुत सोचा तो लगा,
शिकायतें हर किसी से नहीं रखनी चाहिए,
हमें बस खुद को खुश करने की साज़िशें रचनी चाहियें।
हम खुश रहेंगे तो ज़िन्दगी भी सुधरेगी,
ज़माना भी सुधर जाएगा,
और वक्त का तो क्या है,
सब जानतें हैं बेवफा है,
एक दिन ज़रूर बदल जायेगा!!
~ Navratra
Jaipur, India
बहुत ही खूबसूरत,
भगवान तुम्हें सफलता प्रदान करें।
Wonderful poem, filled with emotions and sentiments!!!…Waiting for more such poetry!
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