वो कच्चे आंगन वाली बड़ी हवेली
कितने यादगार भाव से याद आती है!
तीन ओर पक्के गलियारों से घिरे हुए
कच्चे आंगन की गोबर और मिट्टी की लिपाई
घर की औरतों की मेहनत का करिश्मा
अल सुबह उठकर ताजा अनाज पीसना,
घर आंगन से झाड़ू लगाना दरवाजे तक
कोई बैठती सूखी राख से बर्तन चमकाने
एक बिलोती दही लोनी छाछ बनाने को
याद आती हैं बातें भूले बिसरे जमाने की
गर्मियों की दोपहर में बगल के नौहरे के
दरवाजे के बीच पड़े भारी भरकम मांचे
पर खेलता धमाल मचाता बच्चों का गैंग
जैसे कल की सी हों बातें याद आती हैं ।
गांव के कच्चे दगड़े कैसे भूल सकते हैं
गड्ढे हीन सांप की तरह लहराते रास्तों से
बाजार घूमने का रहता आकर्षण भारी
ऊपर से एक आना मिलने का लालच
अबोध मन की जिज्ञासा होती है प्रबल
उस जिज्ञासा की धूमिल यादें जीवित हैं।
यादें अनंत हैं, और अथाह हैं खोने का एहसास
मनुष्य ने बढ़ते युग से बहुत कुछ पाया, खोया भी,
लेकिन पाने खोने के बही खाते में खोने का अनुपात कहीं ज्यादा है
हम धनी, संपन्न तो निःसंदेह बहुत हो गए हैं,
लेकिन बहुयामी तनाव भी बहुत पाल लिए हैं
सुकून, संतुष्टि, भाईचारा जैसी दौलत के स्तंभों की चूलें हिल रही हैं
आधुनिकता के बड़े छोटे केन्द्र ढलान की ओर चल चुके हैं
महानगरों के थके हारे लोगों की अपने गांवों की ओर ललचाती आंखें
गांव के नौजवानों का आंखों में रंगीन सपने लिए शहरों को पलायन
शहरीकरण ने ग्रामीण जीवन को इतिहास बना दिया है
सब कुछ उलट-पुलट कर दिया है समय के परिवर्तन ने
गांवों की नैसर्गिकता शहरी भौतिकवाद के चरण धोकर पी रही है।
~Dr. Kailash Nath Khandelwal
Agra, India