Poetry

मैने जीवन में किया ही क्या है।

द्वंद चलता है नित्य ये स्वयं के लहू और आत्मा के मध्य की मैंने जीवन में किया ही क्या है।

लहू ने कहा है मेरे  मुझे दर्पण देखने को, ये जानने को की मैनें कुछ नहीं किया है जीवन में और व्यर्थ हूँ मैं और मेरा ये जीवन।

 

आत्मा ने भी समर्थन किया की अब देख ही डालो दर्पण और कर डालों अपने जीवन का विश्लेषण की कुछ किया भी है जीवन में या स्वयं ही आत्म मुग्ध हुए जा रहे हो।

पलट के देखा जो पन्ना जीवन का और पहुंच गया मैं अपने बाल्यकाल से युवा काल खण्ड में।

पाया मैने की कितना हठी था मैं। अद्भूत हठ था सदा सफल रहने का, सदैव अव्वल आने का, सभी क्षेत्रों में वर्चस्व बनाने का।

माता, पिता, अग्रज ने, मित्रों ने और मेरे गुरूजनों ने मेरे इस हठ को बढ़ावा दिया, उसका पोषण किया क्योंकि ज्ञात था उनको की मेरे असीम उर्जा का यही सदुपयोग है, अन्यथा इस उर्जा का दुरुपयोग सिद्ध होता घातक सबके लिये और स्वयं मेरे लिये।

 

रहा अव्वल क्रीड़ा में, पठन पाठन में, लेखनी में, गायकी में, जीवन की अनेक कलाओं में और समस्त प्रकार की प्रतियोगिताओं में।

गर्व करते थे सभी मुझपर और इसी गर्व ने मुझे अहंकारी भी बना दिया।

सभी ने मुझपर गर्व किया तो ये उपलब्धी भी उन्हीं की थी, मैने अहंकार किया तो उप्लब्धियां भी मेरी गौण हो गई, नगण्य हो गई,

तभी तो लहू ने पुछा की मैंने जीवन में किया ही क्या है। हालांकी हावी नहीं होने दिया मैं अहंकार को मानवीय संवेदनाओं पर, मनुष्यता नहीं छोड़ी कभी भी।

 

हठ थी मुझे की शीघ्र अति शीघ्र  आत्मनिर्भर होना है, स्वावलंबी होना है और स्वयं के लिये, परिवार के लिये, समाज के लिये और उससे भी ऊपर उठकर राष्ट्र के लिये कुछ करना है।

पुन: मेरे सभी अपनों ने मेरा साहस बढ़ाया, हनुमान जी की भान्ति मुझे मेरे शक्तियों से परिचय कराया।

हो गया मैं स्वावलंबी आत्मनिर्भर और फिर शुरु हुई परीक्षा मेरी।

मेरे में दया थी, उसे प्रदर्शित भी किया, साहस था, उसे प्रदर्शित भी किया, करूणा थी, बहुतों के लिये बहुत कुछ न्योछावर भी किया, अपरिपक्वता थी, ठोकर भी खाया, छल भी मिला परंतु इन सभी अनुभवों से बल भी मिला।

 

जिन जिन के लिये जब भी और जो भी किया, परिणाम में कहीं से आशीष मिला, कहीं से सम्मान मिला, कहीं से अथाह अपनापन तो कहीं से कलंक भी मिला।

विडम्बना ये की सभी सकारात्मक बातें वहां से सुनने को मिली जिसने कोई मेरा सीधा सबंध ना था, और कलंक उन्होने दिया जो तथाकथित रूप से मेरे अपने थे।

कलंक लगाया उन्होने, मेरे अपनों ने, की मैने कलंक लगाया परिवार को, धोखा दिया परिवार को, कलंक लोभ में डूबने का, अपने ही लोगों का धन छीनने का,  स्वार्थीपने का, छल का, प्रपंच का इत्यादि इत्यादि का। छलनी कर दिया हृदय को मेरे, मेरे ही अपनों ने भान्ति भान्ति के आरोप लगाकर।

 

जिनके लिये सर्वस्व लूटाया, प्रश्न भी अंतत: उन्होने ही दागे, एक स्वर में लगते थे पूछने की किया ही क्या है तुमने हमारे वास्ते और किया ही क्या है तुमने अपने जीवन में, स्वयं भी दुखी रहते हो औरों को भी दुख देते हो।

जब तक सामर्थ्य था, साहस और शक्ति थी, युवावस्था का संग था, हंस कर झेला सभी आरोपों को।

स्वयं भी हँसता, औरों को भी हँसाता, स्वयं भी गाता, औरों से भी गवाता, स्वयं भी प्रसन्न रहता, औरों को भी यथा सम्भव प्रसन्न रखता।

परंतु धीरे धीरे परिस्थितियां बदली, समय बदला, उम्र का पड़ाव भी बदला और पीढ़ियाँ भी बदली।

 

सहनशक्ति काम होती चली गई, आरोपों से मन व्यथित और उद्विग्न होने लगा, पहले हँसता था भले खोखली हंसी ही सही, हँसाता था, कृत्रिम ही सही, गाता था था, बेमन ही सही, सभी घावों को सहता था, था असल में बेदम ही सही।

पर अब दुख उभर आता है, आंखें छलक आती हैं, मन भर आता है, किसी चलचित्र की भान्ति बीते हुए समय का दृश्य घुमने लगता है। पिता का संग छुटना और पांव तले धरती का खिसकना।

फिर दुख होता है, पीड़ा होती है, मन चित्कार कर उठता है।

 

देखता हूँ दर्पण फिर, और कहता है दर्पण फिर, की सचमुच मैने जीवन में किया ही क्या है, कुछ भी नहीं, दुखी होने के अलावा किया ही क्या है, कुछ भी नहीं, दुख देने के अलावा किया ही क्या है, कुछ भी नहीं।

अब तो मन भी मेरा कहने लगा है की मैने जीवन में कुछ भी नहीं किया है।

चलो अब तो ये जीवन भी बीत ही गया, दिन जीवन का भी ढल ही गया, सन्ध्या भी अब होने को आ गई, अब समय कहां ये सोचने और विचारने को की जीवन में मैने किया ही क्या। जो किया, सो किया, जो पाया, सो पाया, जो खोया, सो खोया, जो सोया तो सोया।

 

पाया भी अपनों से, खोया भी अपनों में ही, किया भी अपनों के लिये, धीक्कारा भी अपनों ने ही।

सही यही है की राह अब कर लूं मैं अलग, ना दूं अब दुख औरों को और मग्न रहूँ अब स्वयं में।

अब करुँ प्रतीक्षा रात्रि की और फिर कभी ना होने वाले भोर की।

संतुष्ट हूँ मैं की भले जीवन में मैने कुछ नहीं किया पर अब मेरी संताने तो अवश्य करेंगी, मेरा स्वप्न बनेंगी और उसे साकार करेंगी।

 

मेरी परिणिति तो अब तय है, हो संपन्न्ं वो अस्पताल में या फिर आवास में, चैतन्यता में या फिर मूर्छा में, कोई अन्तर नहीं पड़ता ।

खुशी है तो मात्र इस तथ्य की अब मेरे स्वप्न को देखने और उसे साकार करने वाली मेरी संताने तो हैं।

जुग जुग जिए मेरी संताने, सौभाग्य और मंगलता से परिपूर्ण रहेँ मेरी संताने, यश, कीर्ति और स्वास्थ्य से परिपूर्ण रहेँ मेरी संताने, मैने तो जीवन में कुछ भी नहीं किया पर आशीष है मेरा, मेरी संतानों को, की सब कुछ करें वो जीवन में, सब कुछ पाएं वो  जीवन में, सफल रहेँ वो जीवन में और दर्पण कभी भी उनसे ना कह पाए की किया क्या है उन्होनें जीवन में।

 

 

~Udya Nand Jha

Mumbai, India

 

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