Poetry

अभिलाषी चकोर

मैं अभिलाषी मेघों की, तड़ित मेरी उत्कंठा सी,नित संध्या तु उमड़ रही,क्या मेरी प्यास बुझाएगी।बिन नीर मैंने शीत गुजारी,ग्रीष्म की हर रित गुजारी,मेघा अब तु देर न कर,आकर मेरी प्यास बुझा री।आंखे टूक टूक देख रही,तु आती है और जाती है,मैं ललना तु तनिक दया कर,क्यों इतना तड़पाती है।नयन चक्षु सब सुख चुके,अश्रु भी अब रूठ चुके,मेघा अब तु आ जा री,क्यों इतना इठलाती है।मैं अबला तु देख रही,मेरे मन की प्यास बढ़ाती है।इतने में मेघ बोल पड़ी,तड़ित गरज भी खोल पड़ी,सुन प्यासी तु चालाक बड़ी,व्यर्थ में मुझको समझाती है,सागर तल तालाब भरे हैं,तु क्यों नही प्यास बुझाती है।क्षुब्द चकोर भी चीख पड़ी,शुष्क कंठ से खीज पड़ी,मैं अभिलाषी तेरी,क्यों नित तल तालाब मैं जाऊँ,प्राप्त तुझे कर तृप्त हुई मैं, फिर भी सदा प्रतीक्षा पाऊँ।तू चंचल अनिश्चा सी, अपने मन की मर्जी तेरी,मैं लालसा पसारी बैठी ,भला क्यों सुने तू मेरी।तु मेघा तेरा जीवन व्यर्थ,जो प्यासी को समझ न पाये,जल से भरी पड़ी है तु,पर दीनों के  काम न आए।यह सुन मेघा मान गई,दुःख चकोर की जान गई।माफ कर मेरी प्यासी री, उड़ बीच गगन में आजा तु,मैं भी नीचे आती हूँ,तेरे मन की प्यास बुझाती हूँ।

~Pawan Kumar

Dhanbad, India

One Comment

  1. Awesome…