Poetry

बाकी के दिन

पता ही नहीं चला
अंतिम पड़ाव पर कब आ गए
दिन, महीने, वर्ष ऐसे ही गुजर जाते हैं
मानव जीवन के
मध्यम पड़ाव तक
यौवन ऊर्जा से लबालब
धनार्जन में अस्त व्यस्त
भौतिकता की दौड़ के नशे में चूर
जैसे हमसे ही दुनियां चलती है
“मैंने ये किया, वो किया” का भाव
पैसा, पद पाने का गुरूर
इन सबके बीच
गहमा गहमी में
भूल गए उम्र का बहाव
और आज इस मुकाम पर जब आ गए
निराशा का भाव लिए
सोचते हुए पीछे कुछ छूट गया है
भौतिक संचालन में इतना डूबे
ईश्वर को विस्मृत कर भ्रमित रहे,
भटकते रहे होकर दिशा हीन
जैसे हो जाए कोई नाविक दिग्भ्रमित
और फिर ढूंढता फिरे अपने तट को
उसी भांति एक दिग्भ्रमित पथिक की तरह
हम ढूंढते फिर रहे हैं अपना ठिकाना
जिसे न कोई समझा, न कोई जाना
आशंका और आशाओं की ऊंची लहरों के
मध्य से गुजरते हुए, बचते बचाते
अपने घर की अनजानी पगदंडी ढूंढ रहे हैं
जीवन से ऊब चुके
मृत्यु के भय से घबराते
जीवन रुपी नदी के दोनों तट
अब लगने लगे हैं असहज
क्या करें, कहां जाएं की उहापोह में
बाकी के दिन काट रहे हैं
                                        
~Dr. Kailash Nath Khandelwal

Gayatri Tapobhumi, Mathura (UP)
India

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