Poetry

तितली

खाने के  दाने लिए, हाथ में टुकड़े आनेएक आने में   सौदा कर ,यह जो  बेचता है उन मासूम नन्हे तारों के  जगमग ख़्वाबों    कोकर  इंकार , जो नादान -ना सयाने इस दुनिया की मिथ्या रिवायत पर निसार के आधार अनुसार  ,उस असुर को कर निराधार,यह मौसम लेकर उम्मीद की करवट ,अपने रंग बदलता हैऋतु अब बसंत आ रही है , यह गुमसुम ,अपने में ही कहीं गुम हवाओं का रुख बदलता हैकभी न कभी तो तन का , यह मन का दुःख ,सुख में भी  बदलता हैयह जो खड़ा है सीना ताने मेरे सामनेमेरे सब तराने , लय ताल में सुर लाल मेरे बने सब गाने मेरे संग गुनगुनाता है , हर पल , पहर हर  दोहराता है ,गीतों की माला मेरे गले में डाल ,कर दुल्हन सा रोज मुझे सजाकर ,मेरे तन , मेरी रूह को नोच ,  अपने अंध आवेग की अग्नि में मेरे आत्मा सम्मान   मेरे स्वाभिमान की धज्जियाँ उड़ा ,कर मेरे आत्मसम्मान को झुलसा ,कर  हर रात मेरी इज़्ज़त को आबरू -बेआबरू के तराज़ू में ताक पर रख,मेरे हृदय की नदी को मेरे लहू में तरबतर,कर अपने मन के कीचड़ की दुर्गन्ध से भरी   नाली में बदलता हैरात की अंध आंधी में ,  इस झूठे  समाज की बनाई रिवायतों की बंदूक की नोक पर,  कुकर्मों को अपने ,अपनी   ओछी पावनता में नहायी मिथ्या प्रथा  के प्रतिबिम्ब की झलक दिखाकर, दर्द  का सबसे भयानक  रूप हर रोज मुझे  दिखाता हैहै जगत जननी , यह इन्साफ का कैसा तराजू हैजिस प्रकृति की गोद में पली ,शील स्वरूप ,रूप अभिरूप का  लिए ,चंचलता की सखी ,सखियों की नटखट छेडन की चंचलता का मधुर स्वर हृदय में  लिए ,कुदरत के रक्त    को अपनी मांग में सजा,क्यों   भोग रही यह सजा,यह  स्नेह -ममता की आत्मजायह जो खड़ा है दानव रक्तबीज सीना ताने खड़ा   हे कर डाला तवायफों की पंक्ति में अग्रिम खड़ा, यह वैवाहिक  बलात्कारियों का  सड़ा बखेड़ा   समाज में खुद से पहले मुझे मेरा सब  रखने का दिखावा करता ,जुरर्रत देखो ,कैसे सीना ताने हे खड़ायह वैवाहिक बलात्कारियों का सड़ा बखेड़ा ,हे विश्वात्मा !होकर  सबका साक्षीक्यूँ तू अभी भी चुपचाप खड़ा है  बाहर से सुंदरता की पराकाष्ठा का आवरण ओढ़े  ,अंदर से दीमक सा खोखला करती,जड़ों को काटती पेड़ों पर बिछी  बर्फ की नरम चादर को क्यूँ सादर करता हैऐ परवरदिगारा !अब ज़ख़्मी    मन   की नादान कलियों , की मासूमियत  को ज़िंदा रखने  की अभिलाषा लिए  इस अंधियारे में भी उम्मीद की रौशनी का दिया जलाती हूँचिलचिलाती  धूप की दुर्गम डगर को छलांग   बरसात के बाद, काले बादलों को पार,पहाड़ की चोटी पर हो सवारज़िन्दगी के सब रंगो का रस खुद  में घोलेउस सतरंगी इंद्रधनुष की आस मेंपानी में आग लगाने का होंसला जिगर  में लिएसूरज  के ताप से डबडबाई  आँखों मेंअब ज्वाला की राख का सूरमा लगाती हूँ,अपनी ख़ुशी, अपना उत्साहइस खुले आसमान की अनंत ऊंचाइयों को छूने की आरज़ूअपनी नियति का तराज़ू से पाप -पुण्य को तोलने  उन्हें अपने हाथों की लकीरों से नापनेस्वछंद खग की आज़ाद उड़ान का सपना इन अश्रुओं से भीगी शुष्क आँखों में लिए उस उम्मीद की मंजरी को ढूंढ़ती  हूँउम्मीद है !जीवन में उम्मीद की किरण  जगानेआशा की लौ को फिर जीवन का उपहार  देनेहमेशा उस मशाल को रोशन रखने की उम्मीद करती हूँअब इबादत में सपने स्वाधीन, स्वाभिमान की आयात मांगती हूँ ।शहादत  की रिवायत में , रूहानियत की जुस्तुजू मेंजुगनू सी झिलमिल मंजरी पर तितली बन,जीवन में रंगों  की कामना करती हूँ

~Abhishu Sharma

India

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