रणदुंदुभिया बजने लगी, उद्घोष हुआ संघार का …
शंखनाद होने लगा, ऐलान हुआ धर्म युद्ध का ..
वह परम सत्ता थी रण में जो परमेश्वर कहलाते हैं ..
प्रेम करने वालों के लेकिन रथ चालक बन जाते हैं..
पार्थ के रथ को लेकर जब मध्यस्थ रख दिया ..
परम ज्ञान अवस्थित करने ब्रह्म बीज भ्रम बीज रोपित किया..
देख के निज बंधुओं को पार्थ का मन विचलित हुआ ..
मोह से ग्रसित मन ने युद्ध से इनकार किया …
पार्थ ने रणभूमि में ही शिष्यत्व स्वीकार किया ..
माधव ने जीव के निजी कर्म का तब सार दिया…
जल में हूं मैं, नभ में हूं मैं
थल में हूं मैं ,अंतस्थ मैं ,आरंभ मैं
देख तो कहा नहीं हूं मैं…
विशाल से विशालतम ,सूक्ष्म से सूक्ष्मतम …
काल में हूं काल मैं ,प्रिय मैं हूं प्रियतम..
हर जीव है अंश मेरा ,बिन मेरे सब शून्यतम..
युद्ध नहीं धर्म युद्ध है यह, मात्र तू निमित्त बन…
युद्ध तय है , युद्ध होगा , कर्ता का अभिमान ना रख…
यह जीवन भी तो है रण की भूमि, जीव कर्म ही युद्ध है ..
कर्म में आसक्त ना हो आत्मा तो नित्य मुक्त है ..
प्रतिपल कर तू ध्यान मेरा मन में मुझे अवस्थित रख…
हर क्षण हूं मैं साथ तेरे , और जग में कोई ना सुहृद
~Anu Agrawal
Jaipur, India