कोई दुआ, कभी तो काबुल होगी
कोई मन्नत का धागा
किसी रोज, तू ही खुलवाएगा…
देखते है मुकद्दर
आखिर कब तक हमें आजमाएगा…
मैं नदी, यूं इश्क़ डूबी सी
जो राह रोक ली पत्थरों ने,
सागर खुद ही मिलने
कभी तो चला आएगा…
मजील ढूंढ रही
कदमों के निशा मेरे,
उनको भी पता है
हर रास्ता तेरा
मुझ से ही मिलवाएगा….
बंदिशे लगाए ज़माना, या उठाए दीवारें
जब रब ने बना दी जोड़ी तो,
हर पत्थर ख़ुद ढह जाएगा …
आवाज़ दिल से दिल की
बना लेगी राह खुद ब खुद
लाख अंधेरे ढक ले बादल को
मनमीत सूरज फ़िर भी निकल आएगा….
देखते है मुकद्दर
आखिर कब तक हमें आजमाएगा….
~Dr. Neeru Jain
Jaipur, India