ज़िन्दगी कहां से कहां तक
पहुंचेगी किसे पता लगा है
कभी अपनों के बीच घमाघम में
भूलकर सबकुछ अलमस्त जीवन जीता है
मेला बिखरते देर नहीं लगती
जब समय का भूकंप
सब धराशाई कर देता है
कोई एक भाग्यशाली किसी कोने में बैठा
मूढ़मुद्रा में, अचंभित, अर्धविक्षिप्त सा
सोचने का हतास प्रयास, मेला ढूंढने का
एहसास करता कि कोई है आस पास
मृगतृष्णा सी लेकर बैठा अकेला, गुनगुनाता
“चल अकेला, चल अकेला, चल अकेला
तेरा मेला पीछे छूटा राही, चल अकेला।”
ऊपर वाले का विधान किसने जाना है,
जो जानकार बनता है
वह दुनियां का सबसे अकेला इंसान है।
~Dr. Kailash Nath Khandelwal
Agra, India