थोड़ा रुक गयी थी राहों में
चलते चलते थक गई थी ज़िन्दगी.
आँखों के सपने और उन्हें पूरा
होते देखने की जुस्तजू अभी
कोसों दूर खड़े थे एकदूसरे से.
हज़ार कोशिशें नाकाम होती सी
जान पड़ती थी|
मन टीस से भर उठा था मानो
कह रहा हो अब बस, बैठ जाओ
हठ मत करो मंजिल बहुत दूर है
बहुत हुई कोशिश, रहने दो अब
कुछ हांसिल ना होने वाला.
ऊपर वाले का करम हर किसी पर नहीं होता
किस्मत चाहिए उसके लिए भी.
मन मसोसकर बस बैठने ही वाली थी
की ना जाने कहाँ से बारिश की
ठंढी फुहार सी, मुझे भिगोती
मन के कोनों को प्रफुल्लित करती नयी
सुबह की ताजगी लिए एक नयी
खबर कानों में जैसे रस घोल देती.
मैं कर सकती हूं, अभी देर नहीं हुई
क्षितिज पर अब भी सूरज की किरणें
अंधकार को चीर रही हैं
अभी कुछ उम्मीद बाकी है
ऊपर वाले के घर देर है अंधेर नहीं.
बस फिर क्या चल पड़ी एक बार और
कोशिश करने, गोते लगाने अपने
ख्वाहिशों के समंदर में,
कुछ नए रत्न खोजने, कुछ नया टटोलने
कुछ नई चाहतें तलाशने
कुछ नए सपने सजाने|
~Shivangi Srivastava
Motihari, India