Poetry

आओ, चलो कहीं और चलें

आओ, चलो कहीं और चलेंइन आसमानी ऊंचे फ्लैटों से दूरजिनसे मानव ही मानव सर दिखते हैं!आओ, नीचे उतरो, और चलो संगउस अलग-थलग हुई मानवता केजो अपने अपने अवसादी भवनों मेंपड़ी पड़ी ढोंग कर रही है रहने का!

आओ, चलो कहीं और चलेंभाव शून्य ऊंची आसमानी मंजिलों से दूरमिट्टी के ममतामयी धरातल की ओरजहाँ खुशबू हो जान-पहचान की,अपनी देशी आन, बान और शान कीमंहगे शहर में तो मित्र भी मंहगे मिलते हैं,लेकिन शत्रु मिल जाते हैं बिना मोल केपडौ़सी यहाँ अपरिभाषित होकर रह गयाबन पर्याय पेशेवर का कुछ का कुछ हो गयाकौन किससे क्या कहे, क्या बोलेहर शख्स अपने में सिमट कर रह गया!

इन्हें कुछ आभास होता है जिन्दगी कावीकेंड तक बेसब्री से इंतजार के बादपांच दिन तक आदमी मशीन होता है,पति, पिता, पुत्र तो दो ही दिन हो पाता है!कितना विचित्र है ये जीवनदो दिन के लिए खरीदते हैं ये मनोरंजनगैस्ट हाउस की बुकिंगकहाँ कैसा लंच डिनर लेंगेनिर्णय में बच्चों की सहभागितासुनते, करते, लौटते, थके हारेफिर जिन्दगी का चक्र चलने लगता है!

तो आओ, चलो, कहीं और चलेंजिन्दगी के जंजाल से कहीं दूर चलें!नये पुराने के चक्कर से कुछ दूर हटेंये नई पीढ़ी, नया जोश, नई परेशानियांसब झेल ही लेंगे, कुछ नया सीख लेंगेआओ, हम वरिष्ठ अपने बचे वक्त कोप्रकृति के सुन्दर आगोश में बैठ कर,नदी किनारे बहते जल की सरगम सुनकर,या किसी असहाय, सह-प्राणी का सहाराबनकर, कुछ पुनीत कर्तव्यों का निर्वहन करजीवन को अपनेपन से जीकर संपूर्ण करें!तो साथियो, आओ, चलो कहीं और चलें!!

~Dr. Kailash. N. Khandelwal

Agra, India

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