आओ, चलो कहीं और चलें
इन आसमानी ऊंचे फ्लैटों से दूर जिनसे मानव ही मानव सर दिखते हैं! आओ, नीचे उतरो, और चलो संग उस अलग-थलग हुई मानवता के जो अपने अपने अवसादी भवनों में पड़ी पड़ी ढोंग कर रही है रहने का!आओ, चलो कहीं और चलें
भाव शून्य ऊंची आसमानी मंजिलों से दूर मिट्टी के ममतामयी धरातल की ओर जहाँ खुशबू हो जान-पहचान की, अपनी देशी आन, बान और शान की मंहगे शहर में तो मित्र भी मंहगे मिलते हैं, लेकिन शत्रु मिल जाते हैं बिना मोल के पडौ़सी यहाँ अपरिभाषित होकर रह गया बन पर्याय पेशेवर का कुछ का कुछ हो गया कौन किससे क्या कहे, क्या बोले हर शख्स अपने में सिमट कर रह गया!इन्हें कुछ आभास होता है जिन्दगी का
वीकेंड तक बेसब्री से इंतजार के बाद पांच दिन तक आदमी मशीन होता है, पति, पिता, पुत्र तो दो ही दिन हो पाता है! कितना विचित्र है ये जीवन दो दिन के लिए खरीदते हैं ये मनोरंजन गैस्ट हाउस की बुकिंग कहाँ कैसा लंच डिनर लेंगे निर्णय में बच्चों की सहभागिता सुनते, करते, लौटते, थके हारे फिर जिन्दगी का चक्र चलने लगता है!तो आओ, चलो, कहीं और चलें
जिन्दगी के जंजाल से कहीं दूर चलें! नये पुराने के चक्कर से कुछ दूर हटें ये नई पीढ़ी, नया जोश, नई परेशानियां सब झेल ही लेंगे, कुछ नया सीख लेंगे आओ, हम वरिष्ठ अपने बचे वक्त को प्रकृति के सुन्दर आगोश में बैठ कर, नदी किनारे बहते जल की सरगम सुनकर, या किसी असहाय, सह-प्राणी का सहारा बनकर, कुछ पुनीत कर्तव्यों का निर्वहन कर जीवन को अपनेपन से जीकर संपूर्ण करें! तो साथियो, आओ, चलो कहीं और चलें!!~Dr. Kailash. N. Khandelwal
Agra, India