मातृभाषा को तुच्छ समझते,
पराई भाषा को सिर पर रख्ते |
क्षन सुख के खातिर बच्चों को पराए देश भेजे,
जुदाई का गम फिर हंस कर सेहते |
चंद कागज के लिए तूने किया मिट्टी का अपमान ||
कितना बदल गया इंसान….
भोग विलास के लिए तरस्ते,
शादी से पहले बंधन जुडते |
दिल से नहीं दिमाग से मिलते,
तृष्णा चिपाकर फिर से उजड़ते |
जो ना अनुसारे इस्स प्रथा को उसे नहीं मिला सम्मान ||
कितना बदल गया इंसान….
वेद न पढते, क़ुरान न पढते,
क्यू इस्का न मोल समजते |
तीसरी आंख से दुनिया देखते,
फिर भी दया ना दुसरो पे फिरते |
आधुनिक खिलौने खेलने से छूटा धर्म का ज्ञान ||
कितना बदल गया इंसान….
हालत देख के अपने बच्चों की,
ना समझे रोए या हसे भगवान ||
कितना बदल गया इंसान….
~ Ruvil Deliwala
Ahmedabad, India
Note: The poem is inspired by a famous Hindi poem of the same title written by poet Kavi Pradeep