Poetry

निज़ाम दुनिया का

न जाने ये कैसी दुनिया का निजाम हो गया है |

जहा हर तरफ हो रही है ,इंसानियत शर्मसार|

यहाँ हर तरफ पहरा है ,धर्म और मजहब का |

यहाँ जानी जाती है ,पैसे से औकात इंसान की |

यहाँ पहचान होती है ,शोहरत मंद की |

यहाँ होता नहीं ,कोई मोल इमां का |

यहाँ भरमार है ,बेशुमार घोटालेबाजो की |

यहाँ नहीं है ,कोई सरमाया मुफ़लिसों का|

यहाँ हो रहा है ,भाई भाई के खून का प्यासा |

यहाँ हो रही है ,वहशीपन का शिकार नन्ही नन्ही कलियाँ|

यहाँ हो रहा ,अपमान है नारी का |

यहाँ बिछा है ,जाल गोरख धंधो का |

यहाँ बढ़ती जा रही है ,हैवानियत इंसानो की |

ये न जाने कैसी दुनिया का निजाम हो गया है |

इत्ती हो रही है ,संस्कृति के हनन की |

खंडित हो रही है ,मानवीय संवेदनाये |

निरंकुश हो रही है ,सभ्यता |

ये न जाने कैसा दुनिया का निजाम हो  गया है|

निरुद्देश्ये और विध्वंसकता दुनिया का मकसद बन गया है |

                                                                          ~Pratima Mehta

                                                                          Jaipur, India

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