मनुष्य को ईश्वर ने सर्वश्रेष्ठ बनाया
क्या सोचकर, क्या मंशा रही होगी?
लेकिन रचनाकार को बदले में मिला
सिर्फ पछतावा, दुख और ग्लानि,
और अपनी गलती का एहसास,
कितना गिरेगा मनुष्य, होगा कितना पतन?
जब पृथ्वी पर मनुष्य का हुआ प्रादुर्भाव
कितना प्रेम, भाईचारा, सदभाव
रहा होगा, कितना मर मिटने का भाव
भले ही नग्नावस्था में शिकार करता
जंगल जंगल भाले, तीर कमान पकड़े
पर ‘सभ्य’ तो वह जरूर रहा होगा !
आज सभ्यता मनुष्यता के लिए
तरस रही है! प्रेम कहीं मुंह छुपा कर
किसी दूरस्थ ग्रह पर अंतिम साँसें ले रहा है!
भाईचारा एक दूसरे के लहू का प्यासा,
ईश्वर का बनाया सर्वोत्तम पुरुष
कहीं निकृष्ट कोठरी में गुम हो गया है!
~ Dr. Kailash Nath Khandelwal
Agra, India