Poetry

अगर पंख होते मेरे

किसने कहा की अगर पंख होते मेरे

तो ही मैं उड़ जाती कहीं ?

किसने कहा की अगर पंख होते मेरे

तो ही मैं उड़ जाती कहीं ?

आज आसमान छोटा लगने लगा है

शायद मेरी सपनों की उड़ान इसमें समा ना पाई

किसने कहा की अगर पंख होते मेरे

तो ही मैं उड़ जाती कहीं ?

 

दूर जब देखती हूँ मैं काली परछाइयों का झुण्ड

दूर जब देखती हूँ मैं काली परछाइयों का झुण्ड

यूँ पल भर में ओझल हो जाते, जैसे कभी थे ही नहीं

उन चिड़ियों के तो पंख थे

फिर क्यों अँधेरा चीर उड़ पाए नहीं ?

किसने कहा की अगर पंख होते मेरे

तो ही मैं उड़ जाती कहीं ?

 

गिन लेता ग़र कोई रेत के हर कण को

गिन लेता ग़र कोई रेत के हर कण को

मेरे सपनों की दृढ़ता दिख जाती वहीँ

ना सूरज की किरणों से साया बना उसका

ना बिखरे मोती जैसे ग़ुम हुए कहीं

फिर किसने कहा की अगर पंख होते मेरे

तो ही मैं उड़ जाती कहीं ?

 

रेत की तरह फिसल जाति हूँ मैं, चुपके से

रेत की तरह फिसल जाति हूँ मैं, चुपके से

बंद मुट्ठी में ना रख पाया कोई

उस तट पर जब सागर भिगो जाता तन को मेरे

मन को सींच लेती हूँ सोच कर यही

किसने कहा की अगर पंख होते मेरे

तो ही मैं उड़ जाती कहीं?

 

मैं तो असीम हूँ, अधीर हूँ

अस्थायी हूँ और अटल भी

इस धरा की गहराईयों से गहरी हूँ मैं

तुम्हारी सोच और समझ से परे हूँ मैं

क्यों की तुमने कहा की अगर पंख होते मेरे

तो ही मैं उड़ जाती कहीं

तुम पँछियों के पंख गिनों

मैं तो उड़ जाउंगी बिना पंखों के ही।

 

 

                                                          ~Lipsa Mohapatra 

                                                               Cuttack, India

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