कभी कभी मैं परेशान हो जाती हूं
किताबों में कहीं खो जाती हूं
दिल तो करता है सब पढ़ लूं
पर क्या करूं पढ़ते पढ़ते सो जाती हूं।
कभी कभी किताबों की भाषा मुझे बिल्कुल न भाती
न जाने ये कैसे हो सकती है किसी की साथी
इसी सोच में खोई रहती हूं
पर हर मोड़ पर इनके ही संघ होती हूं।
कभी कभी मुझे समझ नहीं आता
कि पढ़ने के बाद में क्यों सब भूल जाती हूं
इन्हीं कमज़ोरी को देखकर
मैं फिर से पढ़ने में लग जाती हूं।
कभी कभी अपने लक्ष्य को पूरा नहीं कर पाती हूं
उस वक़्त मैं मौन हो जाती हूं
पर अपनी सपनों की चाह में
अगली सुबह ही एक कदम और बढ़ाती हूं।
हां कभी कभी मैं परेशान हो जाती हूं।।
~ Harshita Rai
India
Too good and very relatable ??
Beautifully written poem ❤
Nice
Very touching and lovely poetry.