Poetry

Post Covidian Sukooni Savera

बेखौफ, बेपरवाह सी थी इंसानी जिन्दगी,
जब फिज़ा में कलरव कर रहे थे कुदरती जिंदगी|
दूर-दूर तक नहीं थी ये नवीन विषाणु नामक कोविडीयन दरिंदगी!

 

जब सन 2019-20 में कोरोना सुर ने दी सबसे बड़े लोकतंत्र में अपनी दस्तक, हमारे हुक्मरानों की सुशुप्त थी नीति निर्धारक मस्तक|
सज रहा था सबसे बड़े लोकतंत्र में सबसे पुराने लोकतांत्रिक देशाध्यक्ष के लिए “अहमदाबाद अहंकारी दरबार”|
सहसा मेरे मन को याद आया ऐतिहासिक “जॉर्ज पंचम पापित दिल्ली दरबार”!
वर्षों बीतें जरूर थे, पर नहीं मिटा था सत्ता का जनता से खुनी मज़ाक करने का एतबार|
तब थी औपनिवेशिक युग की जनता भुखमरी के शिकार, जब अंग्रेजी अधिराज के लिए सज रही थी विलासिता की थाली|
और अब अहमदाबाद में जाने-अनजाने में घोटी जा रही थी लोकतांत्रिक मूल्यों की थाली!!

 

न जाने प्रधान व्यवस्था ने लगाने का सोचा क्षणिक पैबंद|
खैर वो साल बिता जैसे तैसे रोते, बिलखते!
लगा के तालाबंदी के लच्छेदार गहरी लाल लिपस्टिक और जनता जनार्दन को घरों में करके मजबूर|
छोड़ दिए सेवक अधिराज मजदूरों को रोड पर पैदल, सोच कर जैसे दूध में डाल दिए लैक्टोबैसिलस तलाबंदिया लेपन|
था हमें यह पहले से संज्ञान की आएगा फिर से कोविडीयन तरंग, जो बना देगा धरती श्मशान|

 

इस बार तो दूध में बटर भी गाढ़ा जमाया हुआ था, लोकतान्त्रिक त्यौहार का बिगुल फिर छाया हुआ था|
जहाँ बह रही थी सामूहिक बेफिक्री की बेतरतीब बिडम्बना और बेवकूफीयत की बयार|
इसी में मौका पाकर डंकापति ऑक्सीजन बेचने चल पड़े पड़ोसियों के दरबार,
भक्ति के स्वर में दूरदर्शन रुपी रणभेरी बज उठी जय-जय हो नरेश कुमार|
चहुओर मची है आज ऑक्सीजन के लिए हाहाकार, क्रन्दन कर रही हैं जनता और साथ दे रहे हैं गिने चुने पत्रकार|
खामोश हैं नरेश की नगरी, बन बैठे हैं  कुंवर धृतराष्ट्र कुमार|
कहा सुने हैं आज तक, जो आज करेंगे जनता का उधार|
अब तो बस जारी हैं सांसो और सिलेंडरों के खरीद-फरोख्त का कारोबार|
एक अरब की आबादी, लाचार और धधकती अंकों के सामने सजा पड़ा हों लासो का अम्बार|
कुछ दिनों के लिए ही सही, हम भूल गये राष्ट्रवाद और हिन्दू -मुस्लिम  का जूठा गुबार|!

 

मंदिर और मस्जिद के स्थान ले चुके हैं, अस्पताल|
लंगर का भी रूप बदल गया हैं, अब जीने के लिए खाना की जगह हवा ने ले लिया हैं|
घना अँधेरा हैं पर फिर भी चालू हैं निरंतर दोषारोपण का व्यवस्थागत बाजार|
व्यक्तिगत आँखें अब कर रही हैं, सिर्फ खुदा और ईश्वर को आभार|
आभार अपनों के सुरक्षा के लिए, इस कठिन समय में सांस की परीक्षा के लिए|

 

बाहर से आ रही हैं हिन्दुस्तान को मदद,
क्योंकि हमने पाला हैं अपने आत्मा में आत्मनिर्भरता का आभासी आफत|
यही तो हैं इस देश की जनता का सत्तर वर्षों से अधिक सफ़र का शैक्षिक साक्षर बनने की शराफत|
ये भी तय हैं हम सभी निरंतर लड़ेंगे इस महामारी से| पर क्या कभी लड़ पाएंगे अपने मानसिक बीमारी और लाचारी से?
क्यों न तैयार करें हम खुद को एक नये एह्तरात  से, सच्चे, सबल जनतांत्रिक जमहूरियत के जज्बात से|
जहाँ हो चुनाव हो रोटी, कपड़ा और मकान पर,
अंगुली दब्बे तो केवल और केवल स्वस्थालय, शिक्षालय और वास्तविक सम्मान पर|
करें निर्माण एक ऐसे स्वस्थ हिन्दुस्तान का, जहां पूजा और अरदास हो श्रम शक्ति का न कि भ्रम भक्ति का|
लौटे अपने प्रकृति प्रेम के पथमय पर, मिल कर चले नव-हिन्दुस्तान निर्माण के रूपमय पर|
आज नहीं तो कल यह कोविडीयन अन्धकार भी छटेगा, जरूर विजयी होंगे हम और लायेंगे सुकुनी सवेरा !!

 

                                                                  ~Shonit Nayan & Ankesh Kumar

                                                                 India

3 Comments

  1. Cruel factual truth written in these lines

  2. रवि रंजन

    बहुत सही।