Poetry

गाथा

प्रतिभूति है ये प्रकीर्ण सी प्रवीण सी प्रशस्त सी प्रकांड सी प्रशांत सी
कालजयी संस्कृति जो सिंहासनारूढ रहे अविरल सी अचल सी अक्षुण्ण सी अभ्रांत सी
वीर रस की गाथा जिधर सिंधु का रूप धर लेती है
तो कालिंदी प्रेम भाव का द्योतक बन भू का सिंचन कर देती है
शीश किधर झुकाना है, बिन झुकाए कब कटवाना है
ऐसे संस्कारों की ध्रुवनंदा इधर स्वतः ही धमनियों में प्रवाह भर देती है
थाली में मिली एक रोटी भी कृतज्ञता का स्पंदन करती है
यूँ ही नहीं यह उर्वी अन्नपूर्णा का वंदन करती है!
वचनों का मान रहे, संबंधो का सम्मान रहे, अंतरात्मा का स्थल कपट की

 लौ से संभाल रखे

तितिक्षा को अपना तो कभी ‘पर’ संताप को हर सके..
महात्म्य सुनना गुणों की तपोभूमि का आज भले हीं कुछ को किंवदंतियों सा लगता है
झांकें अगर आज भी अपने अंदर तो इस भू का बीता कल हममें हर क्षण जगता है!
स्वर्णिम इतिहास की गाथा मानों विह्वलता से हमसे कहती है..
संभाल रखो यह धरोहर, शरीर भले ही तुम्हारा अवसान का आलिंगन कर जाएगा किंतु..स्वदेश की आत्मा तुम्हें जीवित रखती है!

 

                                                                             ~ Pragya Kant

                                                                                  Patna, India

5 Comments

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    Keep up the good work. :)

  2. Nicely Written

  3. Very nice poem, I have also read few of your poems on your insta id #desikoel. They are full of content and highly motivating. Thanks for your contribution to hindi language
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  4. Good command over hindi language.
    Rare quality.

  5. Very nice and heart touching… please read this poem once…