Poetry

ऑफिस नामा से जीवन नामा की पगडण्डीयां

युहीं ऑफिस से निकलते-निकलते,
बालों की तरह जिंदगी भी अस्त-व्यस्त सी हो गयी हैं|
मस्तक की पेशियां,
आँखों कि मास्क के साथ निरंतर अकुलाहट की अठखेलियाँ|
कृत्रिम प्रकाश के चमक-दमक,
किराये के कंक्रीट के सहरी घोसलों तक पहुँचने की ललक|
मेट्रो ट्रेन की द्रुतगामी मेकेनिकल खनक,
धाका-मुक्की और मोबाइल में विचारते,
सह मुसाफिरों कि चेहरों की भाव भंगिमाएं|
मेट्रो के दरवाज़ों को खुलने की इंतज़ार,
घुटन से पैबंद होती सांस की दरख्तों ना जाने कब से हैं लाचार|
एयरकंडीशनर के कृत्रिम बयार को परिष्कृत करते कुदरती हवा का झोंका|
सहसा! नेपथ्य से आती आवाज़ ने हमें टोका,
उतर जा ऐ मुसाफिर, आ गया तेरा टेम्पररी स्टे का स्टेशन|
तुझे अब शायद करना हैं थोडा-बहुत वीकेंड का सेलिब्रेशन!
हाँ, भली भांति परिचित हैं चंचल मनचला मन|
ये मात्र क्षणिक सेलिब्रेशन|
ना कि, जिन्दगी के सफ़र और सफर-नामा का सुकुनी समेसन|
ना जाने कब मेरे सपनों के पंख मुझे ले चलेंगे मेरे गाँव,
जहाँ पर बसते हैं मेरे जीवन के धुप और छाव|
धुप, मेरे पिता के रूप में जिसने मेहनत-मस्कत  की तपिश से सँवारा हैं मुझे, निरंतर निखारा हैं मुझे|
छांव हैं मेरी जननी मेरी माँ, कुदरत का सबसे अनमोल-अलौकिक आशीर्वाद|
ममत्व और अपनत्व का कभी खत्म ना होने वाला सागर,
मेरे जिन्दगी सफ़र-नामा का श्रोत और साहिल का गागर|

                                                        ~Shonit Nayan

                                                         New Delhi, India

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