Poetry

दायरा

बहुत कुछ समाज आता है इस शब्द से,

मतलब एकदम साफ है।

 

लेकिन इस दायरे का भी अपना एक अंदाज़ है,

न लड़ने देता है, ना छुपने देता है।

एक दिन चाय पीते पीते ही दायरा मेरे बगल मर आ के बैठा

और बोला -“जब चाय ख़तम हो जाये तो एक बार आवाज़ लगा देना, आज लड़ने की बहुत इच्छा है”

ये सुनके में चौक गया और कुछ पलों के लिए अपनी आँखे बंद करली।

और एक बार फिर दायरा बोल उठा –

 

“हिम्मत की आग में रह कर,

लड़ने का भी शौक रख।

ख़ामोशी तो हर पल ही तेरे साथ है,

कभी अपनी चिल्लाने की आवाज़ को भी महसूस कर।

 

आज बारिश है तो क्या हुआ,

कल सुबह सूरज फिर आएगा।

अगर ये बारिश नहीं थमी तो,

रात में सूरज तेरे लिए चाँद बनकर आएगा।

 

इस वक़्त के खेल को छोड़,

चल ज़िन्दगी का खेल खेलते है।

ज़रा पीछे मुड़ के नहीं,

आगे चलकर देख,

वक़्त खुद गुलाब लिए तेरे इंतज़ार में है।

 

पूछ एक बार उन पंछियो से उड़ा कैसे जाता है,

लड़ते तो वो भी है ।

तो फिर तू क्यों हार जाता है,

वक़्त सबके लिए एक ही है,

तो फिर खुद को इतना बतकिस्मत क्यों समझता है। “

 

दायरा ने इतना कुछ बोलने के बाद एक लंबी सी सांस ली,

और फिर से मेरी तरफ देखा।

मेरे बगल से उठ कर जाते जाते बोला –

 

“मैं दायरा हु,

लेकिन मेरा कोई दायरा नहीं।

मेरी तरह बनके देख तू,

जिसे वक़्त आने पर किसी का खौफ नही।

मैं कुछ भी रोक सकता हूँ ,

कुछ भी मिटा सकता हूँ,

लेकिन मुझे मिटाने वाला आजतक कोई इस दुनिया में आया नहीं।

 

जा चले जा,

कही कोई नयी कहानी में डूब जा,

कोई नहीं रोकेगा,

बस खुद के सूखे रंग को साथ लेके कही दूर भाग जा,

कही दूर भाग जा। “

 

                                                     ~ Dikshant Rajpal

                                                      Kolkata, India

One Comment

  1. Very nice