ज़िन्दगी जैसे कुछ कहना चाहती है
कुछ गुनना, कुछ बुनाना
कुछ अलग सा सुनाना चाहती है
ज़िन्दगी जैसे कुछ कहना चाहती है
रोज़ वही बातें रोज़ वही रातें
गीत कुछ नए गुनगुनाना चाहती है
बहुत हुआ सहना, कहना, चुप रहना
किस्सा अब नया कोई चुनना चाहती है
ज़िन्दगी जैसे कुछ कहना चाहती है.
हक़ तो मुझे भी है खुश रहने का मुस्कराने का
कमबख्त ये दुनिया, बस रुलाना जानती है
ज़िन्दगी जैसे कुछ कहना चाहती है.
क्यूँ हर बार सिलवटें मेरे माथे पर ही दिखती हैं
बेचैन से मन में अपनेपन की मीठी लहर चाहती है
ज़िन्दगी जैसे कुछ कहना चाहती है
हर तरफ सिर्फ़ रुसवाइयाँ
ही हाथ लगी हैं अब तलक
दरख्तों की ठंडी घनी छांव चाहती है.
ज़िन्दगी जैसे कुछ कहना चाहती है.
~Dr. Shivangi Srivastava
Motihari, India