कुछ ज़्यादा ही बढ़ती
जा रही धुंध
कलेजा निचोड़ रही हवा.
शरद ऋतु की खुमारी
अभी चढ़ी भी नहीं
ओस की बूंदों से दूब घास
धुली भी नहीं
जीवनदायिनी पवन दूषित हो
मलिन, निर्जीव हो गई।
आहत है तन-मन
शुद्ध वायु की तलाश
में उनींदी हुई जिंदगी
धुँधलाये ख़्वाब सी
हवाओं ने सारा
दर्द समेट लिया।
अफसोस! वैज्ञानिक युग
का मानव आज फिर
फकीर हुआ।
ढूँढ़ रहा इंसान
विशुद्ध सुंदर शुद्ध हवा
फूँके जो जीवन में प्राण
हर स्वांस को मिले
स्वच्छ निश्चल
दोष रहित
पावन खनकती हवा…
~ Anjana Prasad
Nagpur, India