यूँ तो ज़िन्दगी ने किस रोज़ नही कोचा हमको
उम्र ए चालीस ने फिर एक रोज़ धर दबोचा हमको
वक़्त परिन्दा है कब टिका है किसी के छज्जे पर
हाँ मगर जब भी उड़ा, पंजों से खरोंचा हमको
सार क़िस्से का किसी नब्ज़ की रवानी भर तो नही
जान के भी जान नही पड़ता क्यूँ ये लोचा हमको
रात भर ख़्वाब किये ज़र्ब आसमां में उड़ने को
सहर को दलदल ए अस्ल ने फिर वहीं खेंचा हमको
वक़्त की हाँडी पर जो पका सो ही चखा हमने
चूल्हा ए जिंदगी से लिया जो भी परोसा हमको
आज जब चालीस से हुआ सामना तो लगा मानो
आईने ने कुछ और ही मिजाज़ से जांचा हमको
फूँक आयेंगे इक रोज़ ले जाके किसी पनघट पर
वो जो समझते हैं महज़ हड्डियों का ढाँचा हमको
खुश्क होना तिरा तय है भला उस पर क्या क़ाबू
हाँ मगर रंग इक नया और तो दिखा जा हमको
फिर छिड़ा राग हर इक रग मे है नया सा कोई
फिर लगे खून ने दिया हो आज हवाला हमको
फ़लक पर तैरती फिरती हैं पतंगें बदस्तूर तमाम
देखते हैं ले जाये कहाँ हौसला ए मांजा हमको
जी लिये खूब चाँद छू लेने भर की हसरत में
आफताब को अब निगलना है समूचा हमको
~ Atul Kapoor
Kanpur, India
शब्दों की महफ़िल मैं आपकी तारीफ़ लायक़ कोई शब्द नज़र नहीं आता
Wow
Very well written Ak….. ??