Poetry

मन की मीत

मन की मीत बड़ी अविरल, पर तन की मीत कमंडल जैसी

कभी भरा हुआ, कभी आधा सा

नैनों का रस बड़ा मनमोहक , पर दिल की आस कनेक्शन जैसी

कभी लगा हुआ, कभी काटा सा

मन सोच रहा दिल झेल रहा, सारा जतन क्यों फेल रहा

कभी हरियाली कभी पतझड़ में, तब तो मनमोहक मेल रहा

दिल टूटा सा मन बिखरा सा, लगता मन से कोई खेल गया

झूठे सपने उन आँखों के फैला कर हमको लूट गया

हर पल मंजर वो दिख जाता, कोई आशिक कोल्हू बेल जैसा

कभी थका हुआ कभी हारा सा

मन की मीत बड़ी अविरल, पर तन की मीत कमंडल जैसी

कभी भरा हुआ, कभी आधा सा

अब साँस नयी, अब बात नयी

दिल में सस्ते जज्बात नहीं, कोई कहता रहे , कोई सुनता रहे

अब बेमानी सी रात नहीं

आते दिल में अंदर भी, जज्बात मेरे पानी जैसे

कभू रुका हुआ कभी बहता सा

मन की मीत बड़ी अविरल, पर तन की मीत कमंडल जैसी

कभी भरा हुआ कभी आधा सा

                                                             ~Rishi Bharadwaj

                                                                 India

Comments are closed.